मासूम आंखों में मरते सपने
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उन लाखों बच्चियों के नाम
लिख रही हूं दो शब्द,
जिनकी देह पर तोड़ देती है
अंधी मर्दानगी अपना दम
और हम सभ्यता की चौखट पर
ताकते रहते हैं अपना-सा
मुंह लेकर तटस्थ
अभिशप्त मौन के साथ।
मैं लिख रही हूं
उनके नाम दो शब्द-
जिनकीयोनियों से
पुरुषों की हिंसा का बोझ लेकर
सदियों से रिसता रहा खून।
दरिंदों की अमानवीयता
खुरचती रही जख्म बार-बार
अपमानित करती रही स्त्रित्व।
अब तो अंतड़ियां तक
फट जाती हैं/
क्षत-विक्षत हो जाती है देह
हैवानियत की मार से।
फिर भी हम चुप रहते हैं,
इस डर से कि कहीं
लग न जाए दाग
हमारी निरपेक्षता पर,
मगर हमें शर्म नहीं आती
घिनौनी राजनीति पर।
लोगों को क्यों नहीं
सुनाई नहीं देती
अबोध बच्चियों की चीखें,
क्यों नहीं दिखाई देते
उनकी आंखों में
मरते हुए मासूम सपने,
जिन्होंने मां की अंगुलियां थाम
अभी स्कूल जाना ही
शुरू किया था,
अपने नन्हें कदमों से वह
जमीन की थाह भी
नहीं ले पाई थी,
फिर भी क्यों नहीं
कलेजा नहीं फटा किसी का?
डॉ. सांत्वना श्रीकांत
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(हैवानियत की शिकार हो रही बच्चियों की पीड़ा से आहत हो कर लिखी गई यह रचना)