Thursday, August 1, 2019

लिबरल्स की चिट्ठी का चिट्ठा 


क्या यह चर्बी चढ़ी बुद्धि पर लुहार की चोट की तरह नहीं रही? पलटवार से लिबरल्स गैंग को सांप सूंघ गया। मॉब लिंचिंग को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखने वाले 49 बुद्धिजीवियों पर 62 जानी-मानी हस्तियों का पलटवार करारा रहा। उन्होंने जो सवाल उठाए हैं वो विचार करने योग्य हैं। क्या यह आरोप गलत है कि एक सलेक्टिव एजेंडा के तहत प्रधानमंत्री को पत्र लिखा गया? मकसद सरकार की छवि खराब करना था। पलटवार ने कलई खोल कर रख दी।  उधर, मुजफ्फरपुर की एक अदालत में 49 बुद्धिजीवियों के विरूद्ध अर्जी लगाई गई है। अर्जी में बुद्धिजीवियों पर देशद्रोह और अन्य आरोप लगाए गए हैं। शक नहीं कि उन्मादी भीड़ की हिंसा यानी मॉब लिंचिंग को लेकर समूचे देश में चिंता है। सुप्रीम कोर्ट का रुख भी सख्त है। लेकिन, इसे लेकर सिर्फ मोदी पर अंगुली उठाना सही नहीं है। एक वाजिब सवाल है। स्वयंभू लिबरल्स के पत्र में केवल मुसलमानों, दलितों और अल्पसंख्यकों के विरूद्ध हिंसा की बात क्यों की गई। इससे ध्वनित यह होता है, मानों भारत में बहुसंख्यक हिंदुओं ने अन्य समुदायों और वर्गें का जीना दूभर कर दिया हो। जबकि, मॉब लिंचिंग की घटनाओं में हिंदू भी शिकार होते रहे हैं। दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि आपराधिक घटनाओं पर अंकुश लगाने की पहली जिम्मेदारी राज्यों की है। किसी राज्य में मॉब लिंचिंग या साम्प्रदायिक या जातीय हिंसा की घटनाओं को रोकने के लिए राज्यों को पहला कदम उठाना होता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने 10 राज्यों को नोटिस जारी करके जवाब मांगा है कि पिछले वर्ष जारी किए गए दिशा-निर्देशों के पालन में क्या कदम उठाए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और मानवाधिकार आयोग को भी नोटिस जारी किए हैं। जाहिर है कि मॉब लिंचिंग या भीड़ की हिंसा की घटनाओं को लेकर पूरी गंभीरता से देखने और समझने की जरूरत है। इन्हें रोकने के लिए सामूहिक प्रयास होने चाहिए। 



मॉब लिंचिंग पर प्रधानमंत्री को पत्र लिखने वाले 49 लोगों में फिल्म निर्माता-निर्देशक श्याम बेनेगल, मणिरत्नम, अनुराग कश्यप, अभिनेत्री कोंकणा सेन शर्मा, अपर्णा सेन, सौमित्र चटर्जी, इतिहासकार रामचंद्र गुहा, बिनायक सेन और आशीष नंदी शामिल हैं। बिनायक सेन और आशीष नंदी की कुंडलियां पलटें। नक्सली विचारधारा को मानने वाले बिनायक सेन को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है। वह सुप्रीम कोर्ट से जमानत पर हैं। आशीष नंदी जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में अपनी एक विवादास्पद टिप्पणी के चलते कई दिनों तक चर्चा में रहे। ईश्वर जानें वह उनके मन की बात थी या जोश में जुबान फिसल गई थी। नंदी ने एससी, एसटी और ओबीसी को सर्वाधिक भ्रष्ट करार दिया था। बबाल मचा, पुलिस कार्रवाई शुरू हुई तो उन्होंने खेद व्यक्त करते हुए कहा कि उनकी बात को गलत ढंग से लिया गया। बुद्धिजीवियों के ताजा पत्र से जुड़ी कुछ बातों पर लोगों ने गौर किया है। मसलन, पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले 49 लोगों में से 31 का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध पश्चिम बंगाल से है। खास बात यह नोटिस की गई कि पत्र के समर्थन में पहली और सम्भवत: एकमात्र प्रतिक्रिया ममता बैनर्जी की आई। सोशल मीडिया पर लिबरल्स गैंग को तृणमूल की बी टीम कहा जा रहा है। यह तय मानें कि पश्चिम बंगाल के अगले विधानसभा चुनावों तक इसी तरह के खेल-तमाशे चलते रहेंगे। एक और बात की काफी चर्चा है। कहा जा रहा है कि अवार्ड वापसी गैंग पुन: सक्रिय हो गई है। कुछ लोगों को मोदी और भाजपा की सत्ता में वापसी हजम नहीं हो रही।  ये वही लोग हैं जिन्होंने 2014 में मोदी को वोट नहीं देने की अपील की थी। अपील का  धेले भर असर आम लोगों पर दिखाई नहीं दिया। आम और औसत बुद्धि आदमी समझ चुका है कि स्वयं को लिबरल अर्थात उदारवादी बताते नहीं थकते कुछ बुद्धिजीवियों या सेलेब्रेट्रीज का अपना एजेण्डा है। ये कुछ खास मसलों को ही उठाते हैं। ताजा चिट्टा को ही लें। इन्होंने सिर्फ दलितों और मुस्लिम समुदाय के लोगों के विरुद्ध भीड़ की हिंसा का मामला क्यों उठाया? हिंदुओं के भी विरुद्ध भीड़ की हिंसा की बात क्यों नहीं की गई? एक और बात, ये लोग जय श्रीराम को युद्धोन्मादी और भड़काऊ नारा करार दे रहे हैं। इसी बात से उनके दिमागी में चल रही खदबदाहट को महसूस किया जा सकता है।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                     
62 हस्तियों ने तर्कपूर्ण पलटवार से लिबरल्स की बखिया उधेड़ कर रख दी। जवाब देने वाले साधारण लोग नहीं हैं। ये अपने क्षेत्रों की हस्तियां हैं। इनका बौद्धिक स्तर किसी दृष्टि से उन्नीस नहीं बैठता। क्लासिकल डांसर सोनल मानसिंह, वीणावादक पंडित विश्वमोहन भट्ट, विश्वभारती शांति निकेतन के देवाशीष भट्टाचार्य, अवध विश्वविद्यालय के कुलपति मनोज दीक्षित, डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन के अनिर्बन गांगुली, शिक्षाविद् राधारमन चक्रवर्ती, फिल्म निर्माता-मधुर भंडारकर, सौकत मुकर्जी और विवेक अग्निहोत्री, अभिनेता विवेक ओबेराय, अभिनेत्री कंगना रनौत, गीतकार प्रसून जोशी, पत्रकार स्वपन दासगुप्ता, अभिनेता विश्वजीत चटर्जी, अभिनेत्री पल्लवी जोशी और गायिका मालिनी अवस्थी शामिल हैं। इन हस्तियों ने लिबरल बुद्धिजीवियों को आगाह किया है कि वे इस तरह के पत्र लिख कर देश को बदनाम न करें। पहला मौका है कि समूचे विश्व में भारत की धाक महसूस की जा रही है। भारत की सफल कूटनीति, विदेश नीति, आर्थिक और सुरक्षा नीतियों का लोहा दुनिया मान रही है।  ऐसे माहौल में नकारात्मक पत्र दुनिया में किस तरह का संदेश फैलाएंग? यह तो वही बात हो गई कि आपकी मर्जी की सरकार नहीं होने से आप चिढ़े हुए हैं। बुद्धिजीवी का मुखौटा लगा कर राजनीति कर रहे हैं। एक वरिष्ठ पत्रकार की बड़ी सटीक प्रतिक्रिया है। उनका कहना है कि इन्हें राजनीति करना है तो खुलकर मैदान में क्यों नहीं उतरते? चुनाव लड़ें। वह आगे कहते हैं, तय मानिए कि इन्हें ढाई वोट भी नहीं मिलने वाले।  



दरअसल देश में मुट्ठी भर ऐसे लोग हैं जो स्वयं को बुद्धिजीवी और लिबरल अर्थात उदार बताते हैं। आए दिन ये उन विषयों पर हस्तक्षेप करते हैं जिनकी न तो इन्हें समझ है और न कुछ लेना-देना। मीडिया के एक वर्ग विशेष के अलावा कोई इन्हें गम्भीरता से नहीं लेता। ये कुछ खास विषयों और मुद्दों पर ही जुबान चलाते हैं। आप शांतिप्रिय हैं और समभाव रखते हैं तो हर गलत बात के विरोध में मुंह खोलना चाहिए। कंगना रनौत और अन्य ने सही सवाल किया है। उन्होंने लिबरल्स गैंग से जानना चाहा है कि आदिवासियों और गरीबों पर नक्सली हमलों पर आप चुप क्यों रहते हैं? कश्मीर में अलगाववादी तत्व स्कूल बंद करवाते हैं तब आप चुप क्यों हो जाते हैं? विश्वविद्यालयों में अलगाववादी देश के टुकड़े-टुकड़े होंगे जैसे नारे लगाते हैं तो आप चुप क्यों रहते हैं? कैराना से हिंदुओं के पलायन पर आप क्यों नहीं बोलते? पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा में 100 से अधिक लोगों की मौत पर यही विद्वान क्यों चुप रहे? ममता बैनर्जी के उस बयान का विरोध इन्होंने क्यों नहीं किया जिसमें उन्होंने कहा था कि बंगाल में रहना है तो बांग्ला बोलनी होगी। सवालों की लिस्ट बहुत लंबी है। शायद लिबरल्स एक भी सवाल का ईमानदारी से जवाब नहीं दे पाएंगे।  
नि:संदेह भीड़ की हिंसा की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए इन्हें रोकने के लिए तत्काल कदम उठाए जाने की जरूरत है लेकिन यह काम कानून बनाने मात्र से पूरा नहीं हो सकता। लोगों में समझदारी और धैर्य बढ़ाने की जरूरत है। राजनीतिक और सामाजिक संगठनों के साथ-साथ विभिन्न क्षेत्रों की हस्तियों को सहयोग करना होगा।  



इस काम में छल-कपट या क्षुद्र राजनीति के लिए कोई स्थान नहीं । जहां तक बात मोदी को पत्र लिखने वाले 49 महानुभावों की है तो उनसे निवेदन है कि मैदान में उतरें और समाज में सदभाव को बढ़ाने पर जोर लगाएं। पहले वे साबित करें कि उनके दिमाग में कोई सलेक्टिव एजेंडा नहीं है। उन्हें मन कर्म और वचन से अपनी नेकनीयत साबित करनी होगी।  


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